Tuesday, June 23, 2020

lord jagannath story

History Of Jagannath Temple

     

पुरी में श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम कैसे बना


हमारा देश विभिन्न धार्मिक परंपराओं का देश रहा है हर साल हम विभिन्न त्योहार हर्षोंल्लास से अपने इष्ट देव की याद में मनाया करते हैं।
कोई राम को प्रभु मानता, तो कोई शिव जी को, कोई हनुमान को वैसे ही हम अलग-अलग इष्ट देव को अपना पूज्य प्रभु मानते हैं वैसे ही श्री कृष्ण जी का ही एक रूप श्री जगन्नाथ जी असंख्य लोगों के आराध्य देव हैं आज इस ब्लॉग के अंदर हम जानेंगे कि श्री जगन्नाथ जी के बारे में अनजाने रहस्य जैसे इस मंदिर का निर्माण कैसे हुआ? और किस की कृपा से यह मंदिर संपन्न हुआ ? समुद्र इस मंदिर को बार-बार क्यों तोड़ रहा था? इस मंदिर की मूर्तियां अधूरी क्यों है? पूर्ण परमात्मा कौन है? आदि-2।
lord jagannath
lord Jagannath

नमस्कार दोस्तों मैं हूं, अशोक कुमार और आपका मेरे ब्लॉग STUDY 58 में स्वागत है।
         उड़ीसा प्रांत में एक इन्द्रदमन नाम का राजा था। वह भगवान श्री कृष्ण जी का अनन्य भक्त था। एक रात्री को श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन देकर कहा कि जगन्नाथ नाम से मेरा एक मन्दिर बनवा दे। श्री कृष्ण जी ने यह भी कहा था कि इस मन्दिर में मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल एक संत छोड़ना है जो दर्शकों को पवित्र गीता अनुसार ज्ञान प्रचार करे। समुद्र तट पर वह स्थान भी दिखाया जहाँ मन्दिर बनाना था। सुबह उठकर राजा इन्द्रदमन ने अपनी पत्नी को बताया कि आज रात्रि को भगवान श्री कृष्ण जी दिखाई दिए। मन्दिर बनवाने के लिए कहा है। रानी ने कहा शुभ कार्य में देरी क्या? सर्व सम्पत्ति उन्हीं की दी हुई है। उन्हीं को समर्पित करने में क्या सोचना है? राजा ने उस स्थान पर मन्दिर बनवा दिया जो श्री कृष्ण जी ने स्वपन में समुद्र के किनारे पर दिखाया था। मन्दिर बनने के बाद समुद्री तुफान उठा, मन्दिर को तोड़ दिया। निशान भी नहीं बचा कि यहाँ मन्दिर था। ऐसे राजा ने पाँच बार मन्दिर बनवाया। पाँचों बार समुद्र ने तोड़ दिया।

              राजा ने निराश होकर मन्दिर न बनवाने का निर्णय ले लिया। यह सोचा कि न जाने समुद्र मेरे से कौन-से जन्म का प्रतिशोध ले रहा है। कोष रिक्त हो गया, मन्दिर बना नहीं। कुछ समय उपरान्त पूर्ण परमेश्वर (कविर्देव) ज्योति निरंजन (काल) को दिए वचन अनुसार राजा इन्द्रदमन के पास आए तथा राजा से कहा आप मन्दिर बनवाओ। अब के समुद्र मन्दिर (महल) नहीं तोड़ेगा। राजा ने कहा संत जी मुझे विश्वास नहीं है। मैं भगवान श्री कृष्ण (विष्णु) जी के आदेश से मन्दिर बनवा रहा हूँ। श्री कृष्ण जी समुद्र को नहीं रोक पा रहे हैं। पाँच बार मन्दिर बनवा चुका हूँ, यह सोच कर कि कहीं भगवान मेरी परीक्षा ले रहे हों। परन्तु अब तो परीक्षा देने योग्य भी नहीं रहा हूँ क्योंकि कोष भी रिक्त हो गया है। अब मन्दिर बनवाना मेरे वश की बात नहीं। परमेश्वर ने कहा इन्द्रदमन जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की है, वही सर्व कार्य करने में सक्षम है, अन्य प्रभु नहीं। मैं उस परमेश्वर की वचन शक्ति प्राप्त हूँ। मैं समुद्र को रोक सकता हूँ (अपने आप को छुपाते हुए संत कह रहे थे)। राजा ने कहा कि संत जी मैं नहीं मान सकता कि श्री कृष्ण जी से भी कोई प्रबल शक्ति युक्त प्रभु है। जब वे ही समुद्र को नहीं रोक सके तो आप कौन से खेत की मूली हो। मुझे विश्वास नहीं होता तथा न ही मेरी वित्तिय स्थिति मन्दिर (महल) बनवाने की है। संत रूप में आए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा राजन् यदि मन्दिर बनवाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना, मैं अमूक स्थान पर रहता हूँ। अब के समुद्र मन्दिर को नहीं तोड़ेगा। यह कह कर प्रभु चले आए।
lord jagannath story
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               उसी रात्रि में प्रभु श्री कृष्ण जी ने फिर राजा इन्द्रदमन को दर्शन दिए तथा कहा इन्द्रदमन एक बार फिर महल बनवा दे। जो तेरे पास संत आया था उससे सम्पर्क करके सहायता की याचना कर ले। वह ऐसा वैसा संत नहीं है। उसकी भक्ति शक्ति का कोई वार-पार नहीं है।
               राजा इन्द्रदमन नींद से जागा, स्वपन का पूरा वृतान्त अपनी रानी को बताया। रानी ने कहा प्रभु कह रहे हैं तो आप मत चुको। प्रभु का महल फिर बनवा दो। रानी की सद्भावना युक्त वाणी सुन कर राजा ने कहा अब तो कोष भी खाली हो चुका है। यदि मन्दिर नहीं बनवाऊंगा तो प्रभु अप्रसन्न हो जायेंगे। मैं तो धर्म संकट में फंस गया हूँ। रानी ने कहा मेरे पास गहने रखे हैं। उनसे आसानी से मन्दिर बन जायेगा। आप यह गहने लो तथा प्रभु के आदेश का पालन करो, यह कहते हुए रानी ने सर्व गहने जो घर रखे थे तथा जो पहन रखे थे निकाल कर प्रभु के निमित अपने पति के चरणों में समर्पित कर दिये। राजा इन्द्रदमन उस स्थान पर गया जो परमेश्वर ने संत रूप में आकर बताया था। कबीर प्रभु अर्थात् अपरिचित संत को खोज कर समुद्र को रोकने की प्रार्थना की। प्रभु कबीर जी (कविर्देव) ने कहा कि जिस तरफ से समुद्र उठ कर आता है, वहाँ समुद्र के किनारे एक चैरा (चबूतरा) बनवा दे। जिस पर बैठ कर मैं प्रभु की भक्ति करूंगा तथा समुद्र को रोकूंगा। राजा ने एक बड़े पत्थर को कारीगरों से चबूतरा जैसा बनवाया, परमेश्वर कबीर उस पर बैठ गए। छठी बार मन्दिर बनना प्रारम्भ हुआ।
                  उसी समय एक नाथ परम्परा के सिद्ध महात्मा आ गए। नाथ जी ने राजा से कहा राजा बहुत अच्छा मन्दिर बनवा रहे हो, इसमें मूर्ति भी स्थापित करनी चाहिए। मूर्ति बिना मन्दिर कैसा? यह मेरा आदेश है। राजा इन्द्रदमन ने हाथ जोड़ कर कहा नाथ जी प्रभु श्री कृष्ण जी ने मुझे स्वपन में दर्शन दे कर मन्दिर बनवाने का आदेश दिया था तथा कहा था कि इस महल में न तो मूर्ति रखनी है, न ही पाखण्ड पूजा करनी है। राजा की बात सुनकर नाथ ने कहा स्वपन भी कोई सत होता है। मेरे आदेश का पालन कीजिए तथा चन्दन की लकड़ी की मूर्ति अवश्य स्थापित कीजिएगा। यह कह कर नाथ जी बिना जल पान ग्रहण किए उठ गए। राजा ने डर के मारे चन्दन की लकड़ी मंगवाई तथा कारीगर को मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया। एक मूर्ति श्री कृष्ण जी की स्थापित करने का आदेश श्री नाथ जी का था। फिर अन्य गुरुओं-संतों ने राजा को राय दी कि अकेले प्रभु कैसे रहेंगे? वे तो श्री बलराम को सदा साथ रखते थे। एक ने कहा बहन सुभद्रा तो भगवान श्री कृष्ण जी की लाड़ली बहन थी, वह कैसे अपने भाई बिना रह सकती है? तीन मूर्तियाँ बनवाने का निर्णय लिया गया। तीन कारीगर नियुक्त किए। मूर्तियाँ तैयार होते ही टुकड़े-टुकड़े हो गई। ऐसे तीन बार मूर्तियाँ खण्ड हो गई। राजा बहुत चिन्तित हुआ। सोचा मेरे भाग्य में यह यश व पुण्य कर्म नहीं है। मन्दिर बनता है वह टूट जाता है। अब मूर्तियाँ टूट रही हैं। नाथ जी रूष्ट हो कर गए हैं। यदि कहूँगा कि मूर्तियाँ टूट जाती हैं तो सोचेगा कि राजा बहाना बना रहा है, कहीं मुझे शाप न दे दे। चिन्ता ग्रस्त राजा न तो आहार कर रहा है, न रात्रि भर निन्द्रा आई। सुबह बेचैन अवस्था में राज दरबार में गया।
Jagannath rath yatra
Jagannath rath yatra

                 उसी समय पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) कबीर प्रभु एक अस्सी वर्षीय कारीगर का रूप बनाकर राज दरबार में उपस्थित हुआ। कमर पर एक थैला लटकाए हुए था जिसमें आरी बाहर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, मानों बिना बताए कारीगर का परिचय दे रही थी तथा अन्य बसोला व बरमा आदि थेले में भरे थे। कारीगर वेश में प्रभु ने राजा से कहा मैंने सुना है कि प्रभु के मन्दिर के लिए मूर्तियाँ पूर्ण नहीं हो रही हैं। मैं 80 वर्ष का वृद्ध हो चुका हूँ तथा 60 वर्ष का अनुभव है। चन्दन की लकड़ी की मूर्ति प्रत्येक कारीगर नहीं बना सकता। यदि आप की आज्ञा हो तो सेवक उपस्थित है। राजा ने कहा कारीगर आप मेरे लिए भगवान ही कारीगर बन कर आये लगते हो। मैं बहुत चिन्तित था। सोच ही रहा था कि कोई अनुभवी कारीगर मिले तो समस्या का समाधान बने। आप शीघ्र मूर्तियाँ बना दो। वृद्ध कारीगर रूप में आए कविर्देव कबीर प्रभु ने कहा राजन मुझे एक कमरा दे दो, जिसमें बैठ कर प्रभु की मूर्ति तैयार करूंगा। मैं अंदर से दरवाजा बंद करके स्वच्छता से मूर्ति बनाऊंगा। ये मूर्तियां जब तैयार हो जायेंगी तब दरवाजा खुलेगा, यदि बीच में किसी ने खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनेगी उतनी ही रह जायेंगी। राजा ने कहा जैसा आप उचित समझो वैसा करो।
lord Jagannath temple
lord Jagannath temple

                 बारह दिन मूर्तियाँ बनाते हो गए तो नाथ जी आ गए। नाथ जी ने राजा से पूछा इन्द्रदमन मूर्तियाँ बनाई क्या? राजा ने कर बद्ध हो कर कहा कि आप की आज्ञा का पूर्ण पालन किया गया है महात्मा जी। परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मूर्तियाँ बन नहीं पा रही हैं। आधी बनते ही टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं नौकरों से मूर्तियों के टुकड़े मंगवाकर नाथ जी को विश्वास दिलाने के लिए दिखाए। नाथ जी ने कहा कि मूर्ति अवश्य बनवानी है। अब बनवाओं मैं देखता हूँ कैसे मूर्ति टूटती है। राजा ने कहा नाथ जी प्रयत्न किया जा रहा है। प्रभु का भेजा एक अनुभवी 80 वर्षीय कारीगर बन्द कमरें में मूर्ति बना रहा है। उसने कहा है कि मूर्तियाँ बन जाने पर मैं अपने आप द्वार खोल दूंगा। यदि किसी ने बीच में द्वार खोल दिया तो जितनी मूर्तियाँ बनी होंगी उतनी ही रह जायेंगी। आज उसे मूर्ति बनाते बारह दिन हो गये। न तो बाहर निकला है, न ही जल पान तथा आहार ही किया है। नाथ जी ने कहा कि मूर्तियाँ देखनी चाहिये, कैसी बना रहा है? बनने के बाद क्या देखना है। ठीक नहीं बनी होंगी तो ठीक बनायेंगे। यह कहकर नाथ जी राजा इन्द्रदमन को साथ लेकर उस कमरे के सामने गए जहाँ मूर्ति बनाई जा रही थी तथा आवाज लगाई कारीगर द्वार खोलो। कई बार कहा परन्तु द्वार नहीं खुला तथा जो खट-खट की आवाज आ रही थी, वह भी बन्द हो गई। नाथ जी ने कहा कि 80 वर्षीय वृद्ध बता रहे हो, बारह दिन खाना-पिना भी नहीं किया है। अब आवाज भी बंद है, कहीं मर न गया हो। धक्का मार कर दरवाजा तोड़ दिया, देखा तो तीन मूर्तियाँ रखी थी, तीनों के हाथ के व पैरों के पंजे नहीं बने थे। कारीगर अन्तध्र्यान था।
                    मन्दिर बन कर तैयार हो गया और चारा न देखकर अपने हठ पर अडिग नाथ जी ने कहा ऐसी ही मूर्तियों को स्थापित कर दो, हो सकता है प्रभु को यही स्वीकार हो, लगता है श्री कृष्ण ही स्वयं मूर्तियां बना कर गए हैं।
मुख्य पांडे ने शुभ मूहूर्त निकाल कर अगले दिन ही मूर्तियों की स्थापना कर दी। सर्व पाण्डे तथा मुख्य पांडा व राजा तथा सैनिक व श्रद्धालु मूर्तियों में प्राण स्थापना करने के लिए चल पड़े। पूर्ण परमेश्वर कविर्देव एक शुद्र का रूप धारण करके मन्दिर के मुख्य द्वार के मध्य में मन्दिर की ओर मुख करके खड़े हो गए। ऐसी लीला कर रहे थे मानों उनको ज्ञान ही न हो कि पीछे से प्रभु की प्राण स्थापना की सेना आ रही है। आगे-आगे मुख्य पांडा चल रहा था। परमेश्वर फिर भी द्वार के मध्य में ही खड़े रहे। निकट आ कर मुख्य पांडे ने शुद्र रूप में खड़े परमेश्वर को ऐसा धक्का मारा कि दूर जा कर गिरे तथा एकान्त स्थान पर शुद्र लीला करते हुए बैठ गए। राजा सहित सर्व श्रद्धालुओं ने मन्दिर के अन्दर जा कर देखा तो सर्व मूर्तियाँ उसी द्वार पर खड़े शुद्र रूप परमेश्वर का रूप धारण किए हुए थी। इस कौतूक को देखकर उपस्थित व्यक्ति अचम्भित हो गए। मुख्य पांडा कहने लगा प्रभु क्षुब्ध हो गया है क्योंकि मुख्य द्वार को उस शुद्र ने अशुद्ध कर दिया है। इसलिए सर्व मूर्तियों ने शुद्र रूप धारण कर लिया है। बड़ा अनिष्ठ हो गया है। कुछ समय उपरान्त मूर्तियों का वास्तविक रूप हो गया। गंगा जल से कई बार स्वच्छ करके प्राण स्थापना की गई। {कविर्देव ने कहा अज्ञानता व पाखण्ड वाद की चरम सीमा देखें। कारीगर मूर्ति का भगवान बनता है। फिर पूजारी या अन्य संत उस मूर्ति रूपी प्रभु में प्राण डालता है अर्थात् प्रभु को जीवन दान देता है। तब वह मिट्टी या लकड़ी का प्रभु कार्य सिद्ध करता है, वाह रे पाखण्डियों खूब मूर्ख बनाया प्रभु प्रेमी आत्माओं को।}
Jagannath puri
Jagannath

                  मूर्ति स्थापना हो जाने के कुछ दिन पश्चात् लगभग 40 फूट ऊँचा समुद्र का जल उठा जिसे समुद्री तुफान कहते हैं तथा बहुत वेग से मन्दिर की ओर चला। सामने कबीर परमेश्वर चैरा (चबुतरे) पर बैठे थे। अपना एक हाथ उठाया जैसे आशीर्वाद देते हैं, समुद्र उठा का उठा रह गया तथा पर्वत की तरह खड़ा रहा, आगे नहीं बढ़ सका। विप्र रूप बना कर समुद्र आया तथा चबूतरे पर बैठे प्रभु से कहा कि भगवन आप मुझे रास्ता दे दो, मैं मन्दिर तोड़ने जाऊंगा। प्रभु ने कहा कि यह मन्दिर नहीं है। यह तो महल आश्रम है। इस में विद्वान पुरुष रहा करेगा तथा पवित्र गीता जी का ज्ञान दिया करेगा। आपका इसको विध्वंश करना शोभा नहीं देता। समुद्र ने कहा कि मैं इसे अवश्य तोडूंगा। प्रभु ने कहा कि जाओ कौन रोकता है? समुद्र ने कहा कि मैं विवश हो गया हूँ। आपकी शक्ति अपार है। मुझे रास्ता दे दो प्रभु। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? विप्र रूप में उपस्थित समुद्र ने कहा कि जब यह श्री कृष्ण जी त्रोतायुग में श्री रामचन्द्र रूप में आया था तब इसने मुझे अग्नि बाण दिखा कर बुरा भला कह कर अपमानित करके रास्ता मांगा था। मैं वह प्रतिशोध लेने जा रहा हूँ।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि प्रतिशोध तो आप पहले ही ले चुके हो। आपने द्वारिका को डूबो रखा है। समुद्र ने कहा कि अभी पूर्ण नहीं डूबा पाया हूँ, आधी रहती है। वह भी कोई प्रबल शक्ति युक्त संत सामने आ गया था जिस कारण से मैं द्वारिका को पूर्ण रूपेण नहीं समा पाया। अब भी कोशिश करता हूँ तो उधर नहीं जा पा रहा हूँ। उधर से मुझे बांध रखा है।
who is god
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                 तब परमेश्वर कबीर (कविर्देव) ने कहा वहाँ भी मैं ही पहुँचा था। मैंने ही वह अवशेष बचाया था। अब जा शेष बची द्वारिका को भी निगल ले, परन्तु उस यादगार को छोड़ देना, जहाँ श्री कृष्ण जी के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया था (श्री कृष्ण जी के अन्तिम संस्कार स्थल पर बहुत बड़ा मन्दिर बना दिया गया। यह यादगार प्रमाण बना रहेगा कि वास्तव में श्री कृष्ण जी की मृत्यु हुई थी तथा पंच भौतिक शरीर छोड़ गये थे। नहीं तो आने वाले समय में कहेंगे कि श्री कृष्ण जी की तो मृत्यु ही नहीं हुई थी)। आज्ञा प्राप्त कर शेष द्वारिका को भी समुद्र ने डूबो लिया। परमेश्वर कबीर जी (कविर्देव) ने कहा अब आप आगे से कभी भी इस जगन्नाथ मन्दिर को तोड़ने का प्रयत्न नहीं करना तथा इस महल से दूर चला जा। ऐसी आज्ञा प्रभु की मान कर प्रणाम करके मन्दिर से दूर लगभग डेढ़ किलोमीटर हट गया। ऐसे श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम स्थापित हुआ।
                    अधिक जानकारी के लिए अवश्य देखें साधना चैनल रात्रि 7:30से 8:30बजे तक।

Wednesday, June 17, 2020

krishna janmashtami

krishna janmashtami(कृष्ण जन्माष्टमी)

हमारा भारत देश त्योहारों का देश है यहां हर वर्ष कई प्रकार के तीज त्योहार मनाए जाते हैं। इनमें से ही एक प्रमुख है कृष्ण जन्माष्टमी। जिससे पूरा देश कृष्ण जन्माष्टमी के त्योहार के समय उनके रंग में रंग जाता है हर तरफ कृष्ण लीलाएं और भजन कीर्तन आदि द्वारा भगवान कृष्ण की जीवन की लीलाएं और माधुर्य से ओतप्रोत जीवन की चर्चाएं हुआ करती है।

जन्माष्टमी क्यों मनाते हैं

भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को वासुदेव और देवकी की आठवीं संतान के रूप में श्री कृष्ण जी का जन्म कंस के कारागृह में हुआ था। आगे चलकर श्री कृष्ण जी ने कंस का अंत किया और भी बहुत सारे चमत्कार किए जिनसे उन्हें भगवान माना जाने लगा और उनकी याद में कृष्ण अष्टमी को उनकी जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाने लगा।

क्या श्री कृष्ण जी पूर्ण परमात्मा थे?

आइए पाठ को अब हम विचार करते हैं कि वह समर्थ भगवान कौन है। जो अविनाशी, अजरो-अमर, परम अक्षर ब्रह्म कहलाता है तथा वह मां के गर्भ में नहीं आता।
ऊपर वाले विवरण से स्पष्ट हो चुका है कि श्री कृष्ण जी ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया था और इसी कारण हम उनकी याद में जन्माष्टमी मनाते हैं परंतु वह पूर्ण परमात्मा अलग ही जो जन्म नहीं लेता सशरीर अपने लोक(सतलोक) से चल कर आता है और यहां पर अपनी लीला(तत्व ज्ञान का प्रचार) करके सशरीर यहां से वापस अपने निजलोक(सतलोक) को चला जाता है।
वह परमात्मा जब शिशु रूप में होता है तो उसकी परवरिश कुंवारी गायों के दूध से होती है । जिसका प्रमाण वेदों में प्राप्त होता है। उस परमात्मा का नाम कबीर है।
वह कभी जन्म मरण में नहीं आता।

श्री कृष्ण जी की लीलाएं

krishna janmashtami
कृष्ण जन्माष्टमी

गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाना

श्री कृष्ण जी ने इंद्र की पूजा बंद करवा कर उसकी जगह परमेश्वर की पूजा करने की शिक्षा दी और फिर से एक नई शुरुआत करने को कहा। इस कारण इंद्र ने भयंकर वर्षा की जिससे पूरा गांव में पानी भर गया और उनके पास कोई सहारा नहीं था। तब श्री कृष्ण जी ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाकर सब की रक्षा की।
वह परमेश्वर कबीर साहिब हैं जिस का बखान पवित्र गीता गीता जी में, पवित्र वेदों में, पवित्र कुरान शरीफ और पवित्र बाइबल में किया गया है।

श्री कृष्ण जी द्वारा सुदामा की सहायता करना

श्री कृष्ण जी और सुदामा बचपन के मित्र थे। श्री कृष्ण जी द्वारिका के राजा थे जबकि सुदामा की स्थिति उस समय दयनीय थी इस कारण सुदामा जी ने अपनी पत्नी के कहने पर श्री कृष्ण जी से सहायता मांगने गए थे । तब श्री कृष्ण जी ने एक मुट्ठी चावल के बदले सुदामा जी का महल बनवा दिया था।
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आइए अब जानते हैं उस पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब के बारे में जिन्होंने एक रोटी के बदले में तैमूर लंग को 7 पीढ़ी का राज दे दिया था। जो मुगल बादशाह औरंगजेब के समय तक चला था।
इससे भी सिद्ध होता है कि वह पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब है जो सर्व सुख दाता है। क्योंकि श्री कृष्ण जी श्री विष्णु जी के अवतार हैं और वह जितना अपने से हो सकता है उतनी साधक की मदद अवश्य किया करते हैं। लेकिन मुक्ति तो वह पूर्ण परमात्मा ही दे सकता है। जिसकी जानकारी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज दे रहे हैं।

द्रोपदी के चीर को बढ़ाना

ऐसी मान्यता है कि जब कौरवों की सभा में द्रोपती का चीर हरण हो रहा था तो उस समय श्री कृष्ण जी ने द्रोपदी के चीर को बढ़ाकर उसकी इज्जत की रक्षा की थी।
जबकि यह बात अर्ध सत्य है क्योंकि उस समय भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ चौसर खेल रहे थे।
यह सारा कार्य उस पूर्ण परमात्मा कबीर ने किया था। जो अंधे महात्मा के रूप में द्रोपदी को मिले थे। जब द्रौपदी स्नान के लिए गई हुई थी। उस समय द्रौपदी ने उस अंधे साधु को अपनी साड़ी को फाड़कर के चीर प्रदान करके उसकी इज्जत की रक्षा की थी। जिसके बदले में उस परमेश्वर ने द्रौपदी का चीर बढ़ाकर उसकी इज्जत की रक्षा की थी।

श्री कृष्ण जी की मृत्यु कैसे हुई थी

द्वापर युग के अंदर जब दुर्वासा ऋषि के श्राप से सर्व यादव आपस में लड़कर कट मरे । तब इस घटना से दुखी होकर श्री कृष्ण जी वन में जाकर के पेड़ों के झुरमुट के अंदर एक पैर पर दूसरा पैर रखकर लेट गए थे।
श्री कृष्ण जी के पैर में एक पदम था जो पेड़ों के झुरमुट से हिरण की आंख की भांति चमक रहा था।
उसे शिकारी ने मृग की आंख समझकर विषैला तीर चला दिया जो श्री कृष्ण जी के पैर में लगा और इससे श्री कृष्ण जी मृत्यु को प्राप्त हुए थे।
वह शिकारी कोई और नहीं बल्कि त्रेता युग में विष्णु द्वारा राम रूप में वध किया गये बाली की आत्मा थी। जिसने अपना बदला पूर्ण किया था।
पाठ को विचार करें कि उपरोक्त लाइन से सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी का जन्म होता है तथा उनकी मृत्यु भी होती है तो इससे सिद्ध हुआ कि वह अजर अमर परमात्मा नहीं है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है जो वास्तव में अविनाशी है।
गीता जी के अध्याय 18 के श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाने को कहा है।
वह परमात्मा कबीर है और वही पूजा के योग्य हैं जो हम सभी आत्माओं का परम पिता है । वही पूर्ण परमात्मा कहलाता है जो 1398 ई. में काशी के लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर अवतरित हुए और 120 वर्ष तक यहां अपने लीला करते हुए मगहर से 1518 ई. में सशरीर अपने निजलोक सतलोक को चले गए। जिसकी जानकारी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज प्रदान कर रहे हैं। उनसे सत भक्ति ग्रहण करके अपना मानव जीवन सफल करें ।
janmashtami lord krishna
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क्या श्री कृष्ण जी पाप कर्म काट कर मोक्ष प्रदान कर सकते हैं

यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है और बुद्धिजीवी वर्ग निरंतर इस पर चिंतन भी करते हैं और कई विचारक श्री कृष्ण जी को पूर्ण परमात्मा और पाप कर्म को काटने वाला तथा मोक्ष प्रदाता बताते हैं लेकिन यह सत्य नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना कर्म बंधन भी नहीं काट पाए और उन्हें भी अपना कर्म फल भोगना पड़ा। कैसे जाने ?
श्री कृष्ण जी श्री विष्णु जी के अवतार माने जाते हैं और श्री विष्णु जी ने त्रेता युग में राम रूप में इस धरती पर आए हुए थे उस समय उनकी पत्नी सीता जी का अपहरण रावण ने कर लिया था। जिसकी खोज के क्रम में बाली और सुग्रीव के बीच में युद्ध हुआ। जिसमें श्री राम जी ने छुप करके बाली को तीर मारकर के मृत्यु का वरण करवाया था।
यही बदला श्री विष्णु जी को कृष्ण जन्म में चुकाना पड़ा। जब बाली की आत्मा शिकारी बनी और उसने श्री कृष्ण जी के पैर में विषैला तीर मारकर उनके जीवन लीला का अंत किया था।
इससे सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी कर्मों के बंधन अर्थात पाप कर्म नहीं काट सकते और न ही मोक्ष प्रदान कर सकते हैं।क्योंकि उन्हें तो स्वयं अपना कर्म फल भी भोगना पड़ा था। देवी भागवत महापुराण में वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उनकी तो जन्म और मृत्यु हुआ करती है। वे नित्य नहीं है और ऊपर गीता जी के श्लोक द्वारा स्पष्ट भी किया जा चुका है कि वह परमात्मा कोई और है जो मोक्ष जाता है तथा हमारे पाप कर्मों को काट सकता है। जिसका प्रमाण पवित्र ऋग्वेद मंडल नंबर नौ सूक्त संख्या 82 और मंत्र 1 से 2 में भी दिया गया हैं।
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Lord Kabir
जिसकी तत्वदर्शी संत बताएगा और वह तत्वदर्शी संत वर्तमान समय में संत रामपाल जी महाराज हैं।
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